देवभूमि के नाम से प्रसिद्द उत्तराखंड राज्य प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध राज्य है. उत्तराखंड अपनी संस्कृति, शौर्य और त्यौहार के लिए पूरे देश में विख्यात है. यहां की अति प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराएं मुख्यतः धर्म और प्रकृति से परिपूर्ण हैं इसलिए, यहां के हर त्यौहार में प्रकृति का महत्त्व साफ़-साफ़ दिखाई देता है. उनमें से ही एक त्यौहार है फूलदेई. क्या आप जानते हैं कि क्या है फूलदेई त्यौहार (Phool Dei Festival)?
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फूलदेई त्यौहार कब मनाया जाता है? – When is Phool Dei Festival celebrated?
उत्तराखंडी परंपरा और प्रकृति से जुड़ा एक लोक-पारंपरिक त्यौहार है ‘फूलदेई’. Phool Dei Festival चैत्र मास की संक्रांति अर्थात् चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होकर अष्टमी यानि आठ दिन तक चलता है. गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में Phool Dei Festival आठ दिन तो कुछ क्षेत्रों में यह पूरे एक माह तक भी मनाया जाता है.
चैत्र माह के शुरू होते ही पहाड़ों में बुरांस, फ़्योंली, किन्गोड़, हिसर, लाई, बासिंग आदि के फूल खिलने लगते हैं. इसलिए चैत्र माह के आगमन की ख़ुशी में यह त्यौहार मनाया जाता है. गढ़वाल में इस त्यौहार को ‘घोघा’, ‘फूल संक्रांति’, ‘फूल संग्रांद’, ‘फुलारी पर्व’ और ‘फुल्यार’ आदि नाम से भी जाना जाता है.
चैत ऋतु आते ही ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से बर्फ़ पिघलने लगती है, सर्दियों के ठंडे दिन बीत जाते हैं और उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ बुरांस के लाल फूलों की लालिमा से भर जाते हैं, तब पहाड़ के लोगों के द्वारा पूरे क्षेत्र की ख़ुशहाली के लिए फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है.
प्रकृति देवी को आभार प्रकट करने वाला पर्व है Phool Dei Festival
Phool Dei Festival का संबंध भी प्रकृति के साथ जुड़ा है. पहाड़ के लोगों का जीवन प्रकृति पर बहुत ज्यादा निर्भर होता है इसलिए, यहां के लोगों के त्यौहार भी किसी न किसी रूप में प्रकृति से ही जुड़े होते हैं.
उत्तराखंड के लोक जीवन में भी प्रकृति का ख़ास महत्त्व है. प्रकृति के द्वारा प्रदान किए गये उपहारों को यहां के लोग वरदान के रूप में स्वीकार करते हैं और अपने लोक पर्वों के माध्यम से प्रकृति के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं.
फूलदेई त्यौहार हम सभी को प्रकृति से प्रेम करने की सीख तो देता ही है, साथ ही यह त्यौहार हमें प्रकृति संरक्षण के लिए एक अच्छा संदेश भी देता है.
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फूलदेई त्यौहार कैसे मनाया जाता है? How to celebrate Phool Dei Festival?
यह त्यौहार मुख्य रूप से किशोर लड़कियों और छोटे बच्चों का लोकपर्व है. प्रकृति द्वारा प्रदत्त इतने सारे सुंदर उपहार देने के लिए चैत्र माह के पहले दिन गांव के सारे बच्चे सुबह-सुबह उठकर जंगलों की ओर जाते हैं और वहां से फ्योंली, बुरांस, बासिंग, सिल्फोड़ा, कुंज, सरसों, गुलाब और कचनार जैसे जंगली फूलों के साथ-साथ आडू, खुबानी और पूलम के फूलों को चुनकर लाते हैं फिर बच्चे और महिलाएं मिलकर घोघा देवता की डोली सजाते हैं.
जंगल से तोड़कर लाए गए ताज़े फूलों, हरे पत्ते, नारियल और चावल को रिंगाल से बनी टोकरी में सजाकर घोघा देवता की पूजा करते हैं और फूलदेई का लोकगीत गाते हुए बच्चे बारी-बारी से घोघा देवता की डोली को कंधों पर उठाकर नचाते हुए ये मधुर गीत गाते हैं:
”चला फुलारी फूलों को, सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौरों का जूठा फूल ना तोड़यां, म्वारयूं का जूठा फूल ना लायां
फुल फुलदेई दाल चौंल दे, घोघा देवा फ़्योंला फूल,
घोघा फुलदेई की डोली सजली, गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल’’
एक ही सुर में फूलदेई के लोकगीत गाते हुए ये बच्चे पूरे गांव में ख़ुशी का माहौल उत्पन्न कर देते हैं और पूरा गांव खुशी से चहक उठता है.
फूलदेई छम्मा देई (Phool Dei Chamma Dei)
Phool Dei Festival मनाने के लिए गीत गाते-गाते घोघा देवता की डोली और फूलों की थाली व डलिया को लेकर बच्चों की टोली पूरे गांव में घर-घर जाती है. हर घर की देहरी यानि मुख्य द्वार पर फूल, चावल और हरियाली डालते हुए ये सभी बच्चे सभी घरों की सुख-समृद्धि और ख़ुशहाली के लिए अपनी शुभकामनाएं देते हैं.
इस दौरान एक और लोकगीत भी गाया जाता है-
”फूलदेई, छम्मा देई जतुकै देला, उतुकै सही दैणी द्वार, भर भकार
ये देली स बारंबार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार….”
देहरी पर डाले गए ये फूल अच्छे भाग्य का प्रतीक माने जाते हैं. घर के मुखिया और महिलाएं घर पर आए हुए बच्चों का स्वागत करती हैं और उन्हें भेंट में चावल, गुड़, अनाज और कुछ पैसे देकर आशीर्वाद देती हैं.
इस तरह Phool Dei Festival लगातार आठ दिनों तक चलता है. आठवें दिन सभी बच्चे किसी एक सामूहिक जगह पर एकत्र होकर बड़े लोगों की मदद से भेंट में मिले चावल, गुड़ और दाल आदि से हलवा, मीठा भात, स्वाले और अन्य व्यंजन बनाते हैं.
यह प्रसाद सबसे पहले घोघा देवता को चढ़ाया जाता है और फिर सभी लोगों में बांटा जाता है. बच्चों के साथ-साथ गांव वाले भी ये पकवान बड़े स्वाद से खाते हैं.
इस प्रकार प्रकृति की पूजा का यह पर्व चैत्र माह के आठवें दिन समाप्त हो जाता है. प्रकृति को धन्यवाद कहने के साथ प्रकृति के इन रंगों यानि फूलों को अपनी देहरी में सजाकर उत्तराखंड प्रकृति का अभिवादन करता है.
यह आज का कड़वा सच है कि ऐसी कितनी ही अच्छी और निःस्वार्थ परंपराएं और रीति-रिवाज थे जिन्हें हम लोग आधुनिक जीवन की भागदौड़ और आपाधापी में भूल चुके हैं. पलायन की मार झेल चुके पहाड़ों में बसे हुए न जाने कितने ही गांव आज ख़ाली हो चुके हैं.
ये परम्पराएं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ का संदेश देती थी. लेकिन फिर भी, वक़्त के साथ भले ही तरीके बदल गए हों मगर कुछ परम्पराएं आज भी जीवित हैं. ‘फूल देई, फूल-फूल माई’ उत्तराखंड की ऐसी ही एक बेजोड़ परंपरा है जो आज भी ज़िंदा है.
सभी उत्तराखंडवासियों को फूलदेई (फूल संग्रांद) की हार्दिक शुभकामनाएं.
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